Sustain Humanity


Wednesday, August 31, 2016

आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं.

आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं. 
TaraChandra Tripathi
दादा जिलाधिकारी, पिता पुलिस महानिरीक्षक, बेटी आरक्षण के आधार पर सिविल सर्विस परीक्षा में सर्वोच्च स्थान और वास्तविक दलित मृत पत्नी की लाश को अकेले ढोने के लिए मजबूर. यू.पी. में मुलायम यादव परिवार का शासन. बिहार में लालू के दो अधपढ़ बेटे एक मंत्री तो दूसरा उप मुख्यमंत्री. जनजाति का सारा आरक्षण भोटान्तिकों और मीणाओं की बपौती. सन्थाल, कोरवा, गौंड.... सारे फटेहाल. अपने निकट संबन्धी के गहने से में भी मिलावट करने से न चूकने वाले स्वर्णकार आरक्षण के अन्तर्गत. सर्वोच्च न्यायालय दमे से खाँसते बूढ़े स्वसुर की तरह ’कच-कच’ लगाता रहे. कौन सुनता है उसकी. बकने दो. ज्यादा बकबक करेगा तो विधान में ही संशोधन कर देंगे कि पूर्व मुख्यमंत्री न केवल आजीवन सरकारी बंगले में मौज मनाते रहेंगे अपितु मरने के बाद भी उनका भूत उस बंगले में रहने के लिए अधिकृत होगा.
दलितों और आदिवासियों और आर्थिक अभावों से जूझते गरीबों उत्थान के लिए कोई ठोस योजना नहीं, न भोजन में पोषक तत्व, न अच्छी चिकित्सा, न अच्छी शिक्षा, न प्रशासन में उनके प्रति कोई हमदर्दी. इन सब व्यवस्थाओं के लिए तो बहुत परिश्रम करना पड़्ता, नव निर्माण के संकल्प की आवश्यकता होती. ७० साल में उनकी ओर देखा तक नहीं गया.
जब संविधान बना था, तब उसके निर्माता बड़े उत्साह में थे, उन्हें लग रहा होगा कि अपनी सरकार देश का कायापलट कर देगी, और दस साल में दलित, आदिवासी, सामान्य वर्ग के खाते-पीते परिवारों के स्तर पर आ जायेंगे.
स्वप्न द्रष्टा थे वे लोग. वे ही क्या हर गाँव में हर देशवासी में कुछ कर गुजरने का उत्साह था. मेरे गाँव में ही हम लोगों ने बाल संघ बनाया, सफाई, आनुशासन और परिश्रम करने की कसमें खाईं. युवकों ने शक्ति क्लब बनाया, लोगों ने मिल जुल कर गाँव में पानी के अभाव को दूर किया. बिना सरकारी सहायता के केवल आपसी चन्दे और रामलीली आदि धार्मिक आयोजनों में संचित होने वाली धनराशि और श्रमदान से प्राथमिक स्तर से आगे की पढ़ाई के लिए विद्यालय भवन बनाये, अध्यापकों की व्यवस्था की. १९४७ में ही लीलावती पन्त जैसी सम्पन्न महिला ने ्भीमताल में अग्रेतर शिक्षण की व्यवस्था के लिए चालीस हजार रुपये ( तब ब्रिटिश पाउंड और भारतीय रुपया एक ही स्तर पर था) या आज के हिसाब से चालीस लाख रुपया दान दिया था.
जाने कहाँ गये वो दिन... इन्दिरा जी का सत्ता-लोभ, न केवल उनको अपितु पूरे देश को ले डूबा. सत्ता पर छुट्भैयों की जमात काबिज हो गयी. जय प्रकाश का प्रकाश गुम हो गया. यदि वे बीमारी से नहीं मरते तो गांधी की तरह ही अंधेरे कमरे के कोने में रो रहे होते.
नरसिंहा और मनमोहना की बन आयी तो निजीकरण शुरू हो गया. सरकारी उद्योग बिकने लगे. नेताओं की बन आयी. उन्होंने अपने सैंया से नयना लड़इहैं, हमार कोई का करिहै के मोड में अपने-अपने संस्थान खोलने शुरू किये. सरकारी व्यवस्था तदर्थ या काम चलाऊ बना दी गयी. बिना शिक्षण की समुचित ब्यवस्था के निजी मेडिकल कालेज खुलते गये और २०० करोड दे सकने वाला महामूर्ख भी डाक्टर बन कर लोगों को और उनकी गाढ़ी कमाई को भी स्वर्ग प्रदान करने लगे.
आज तो निजीकरण महामारी बन चुका है. अब तो देश के असली मालिक अदानी, अम्बानी, माल्या, जाल्या... हैं. सत्ता और विधान मंडल एक स्वर से ’ जो तुमको हो पसन्द वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे’ वाले मोड में हैं. शहीद होने के लिए गरीबों की जमात लाइन में लगी है. चाहे उन्हें बिना जिरह बख्तर के कश्मीर में झौंक दो या दन्तेवाड़ा में अपने ही वर्ग का नाश करने में लगा दो.
सच पूछें तो आज का युवा जाति को मिटाने में लगा है. अन्तर्जातीय, अन्तर-साम्प्रदायिक विवाह बढ़ रहे हैं. खान-पान के बन्धन लगभग समाप्त हो चुके हैं. होंगे भी तो दूर दराज के पिछड़े ग्रामों के अधेड़ों में. दूसरी ओर समय के भागते साँड की पूँछ पकड़ कर उसे रोकने का मिथ्या प्रयास में लगी खाप पंचायतें प्रेमी युगलों और नव विवाहितों की बलि लेती जा रही हैं.
आरक्षण की व्यवस्था का रबर की तरह खिंचते जाना हमारे राजनेताओं के निकम्मेपन और राजनीति पर अपने वंश को चिरस्थायी करने की मुंजीय प्रवृत्ति का परिणाम है. मुंज, राजा भोज का चाचा, जिसने सत्ता लोभ के कारण राज्य के वैध उत्तराधिकारी भोज की हत्या का षड्यंत्र रचा था. और राजा भोज के यह लिखने पर कि मान्धाता जैसे महीपति जब इस धरती को अपने साथ नहीं ले जा सके क्या तुम इस धरती को अपने साथ ही ले जाने की सोच रहे हो, मुंज की आँखें खुल गयीं.
लेकिन हमारे नेताओं की आँखे तब तक नहीं खुलेंगी, जब तक पूरे देश का बंटाधार नहीं हो जायेगा.
मुझे लगता है कि इस आरक्षण से माया- मुलायम- लालू जैसी त्रिमूर्ति की चाँदी भले ही हो रही हो, देश भीतर ही भीतर टूट रहा है.

झारखण्ड : भाजपा सरकार अडाणी को 1700 एकड़ जमीन देने को तैयार, विरोध में स्थानीय आदिवासी एकजूट संघर्ष संवाद

झारखण्ड : भाजपा सरकार अडाणी को 1700 एकड़ जमीन देने को तैयार, विरोध में स्थानीय आदिवासी एकजूट

संघर्ष संवाद



झारखण्ड की भाजपा सरकार ने गोड्डा जिले के मोतिया गांव में अडाणी के पॉवर प्लांट के लिए 1700 एकड़ जमीन देने की मंजूरी दे दी है। इस परियोजना से  दस -बारह  गांवों के 30 हजार लोग पूर्णतः विस्थापित होंगे।  प्लांट को चीर नदी से 10 करोड़ लीटर पानी हर रोज दिया जायेगा। स्थानीय आदिवासी अडाणी के पॉवर प्लांट के विरोध में एकजूट होते हुए नारा बुलंद कर रहे है 'नहीं चाहिए हमें अडाणी का यह पावर प्लांट'। पेश है मुकेश कुमार की रिपोर्ट;

झारखंड के गोड्डा जिले के अंतर्गत जिला मुख्यालय से कुछ ही दूरी पर मोतिया गांव के समीप बिजली उत्पादन के लिए एक पावर प्लांट प्रस्तावित है। यह प्लांट प्रधानमंत्री के चहेते उद्योगपति गौतम अडाणी की कंपनी का है। 1600 मेगावाट प्रतिदिन बिजली उत्पादन की क्षमता वाले इस प्लांट को राज्य की वर्तमान बीजेपी सरकार ने मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टेंडिंग (एमओयू) पर हस्ताक्षर कर मंजूरी दे दी है। प्लांट लगाये जाने वाले क्षेत्र की जनता से राय-मशवरा करना भी राज्य सरकार ने जरूरी नहीं समझा।

इस पावर प्लांट के लिए मोतिय गांव के आस-पास की 14 मौज़ा के किसानों की 1700 एकड़ बहुफ़सली खेती की जमीन को चिन्हित किया गया है। इस परियोजना से मोतिया, सोनडीहा, पटवा, पुरबेडीह, रमनिया, पेटनी, कदुआ टीकर, गंगटा, नयाबाद, बसंतपुर, देवन्धा, गुमा, परासी एवं देवीनगर सहित दर्जनों गांव के लगभग 30 हजार लोग पूर्णतः विस्थापित होंगे तथा लगभग 1.5 लाख लोग प्रभावित होंगे। इस परियोजना में जिनकी जमीन जायेगी, कुछ मुआवजे की कीमत पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी की अपने बाप-दादा की जायदाद हमेशा के लिए खो देंगे। साथ ही इस जमीन में खेती करने वाले किसान मजदूर भारी तादाद में बेकारी के शिकार होंगे और पशुओं के चारा के लिए भी पशुपालकों को जूझना पड़ेगा।

उक्त परियोजना से होने वाली अनुमानित क्षति- 

  1. कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन – 48000 टन (प्रतिदिन)
  2. छाई –राख़ (एश) का निष्काषण – 20500 टन (प्रतिदिन)
  3. अन्य जहरीली- स्वास्थ्य के लिये हानिकारक गैसों का उत्सर्जन – 1100 टन (प्रतिदिन)
  4. ऑक्सीजन का क्षरण – 51200 टन (प्रतिदिन) - एक मेगावाट बिजली उत्पादन पर 32 टन ऑक्सीज़न का क्षरण होता है. 
  5. जल का दोहन – 16 करोड़ लीटर (प्रतिदिन) 10 करोड़ लीटर ‘चीर’ नदी से और बाक़ी भूमिगत जल 
  6. उपजाऊ जमीन – 1700 एकड़ 
  7. खाद्यान्न उत्पादन की क्षति – सालाना 25 हजार क्विंटल धान एवं 10 हजार क्विंटल - गेहूँ, दलहन, तिलहन आदि. 
  8. कोयला खपत- 20 हजार टन प्रतिदिन (जीतपुर कोलब्लॉक से)
  9. तापमान वृद्धि- 2-30 C

इसके साथ ही कोई मुगालते में न रहे कि इससे स्थानीय लोगों को बिजली मिल जाएगी और उनका विकास हो जाएगा! परियोजना से उत्पादित बिजली बांग्लादेश को बेची जायेगी, जिसका लाभांश अडाणी की झोली में जाएगा। एक अनुमान के मुताबिक इस परियोजना से सारे खर्चे काटकर लगभग 1682 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष मुनाफा होगा, जो अडाणी के खाते में जाएगा।

यानी हमारी हर एक एकड़ जमीन पर अडाणी एक करोड़ रुपये हर साल लूटेगा! परियोजना लगने वाले अन्य इलाकों की तरह यहाँ की जनता के हिस्से आयेगा राख़, प्रदूषण, खतरनाक बीमारी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी की जनता की जमीन एक झटके में अडाणी के खाते में चला जाएगा, जहां वे अडाणी की इजाजत के बगैर घुस भी नहीं पाएंगे! जमीन के मुआवजे के तौर पर मिले कुछ रुपये और मुट्ठी भर लोगों को गार्ड-दरबान की नौकरी के जूठन का लालच देकर हमारी बहुफ़सली-उपजाऊ जमीन सदा-सदा के लिए हड़प ली जायेगी।

यहाँ ज़्यादातर नौकरियां तो बाहर के उच्च तकनीकी विशेषज्ञों को ही मिलेगी, बाक़ी स्थानीय लोगों के हिस्से तो जूठन ही आयेगा! परियोजना के लिए होने वाले अंधाधुंध पानी के उपयोग से भूजल स्तर नीचे चला जाएगा, जिससे आस-पास का जनजीवन और खेती-किसानी बुरी तरह प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

अडाणी की जेबें भरेगी और हम ग्रामवासी किसान-मजदूर परिणाम भुगतेंगे! देश के जिन क्षेत्रों में भी इस किस्म का भारी-भरकम पावर प्लांट लगा है, वहाँ की स्थानीय जनता आज खून के आँसू रो रही है और कंपनियां और उनके अफसर-ठेकेदारों की तिजोरी भरती जा रही है।

क्या उसे हम यहाँ भी दोहराने देंगे! क्या मुनाफे के हवसी इन भेड़ियों को हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुनहरा भविष्य देने के बजाय उसकी कब्र खोदने की छूट देंगे! नहीं, कतई नहीं! हम लड़ेंगे - अपनी धरती माता के लिए ; अपनी इस अचल उपजाऊ संपत्ति के लिए ; आने वाली पीढ़ियों के लिए! हमारे लिए जमीन पीढ़ी-दर-पीढ़ी के जीवन और जीविका की गारंटी है। सिंगूर-नंदीग्राम के किसानों की तरह हम लड़ेंगे और इन लूटेरों के पाँव अपनी जमीन पर नहीं पड़ने देंगे! हमारे पास लड़ने के अलावा और कोई रास्ता भी तो नहीं है! आइये, इसषड्यंत्र का सब मिलकर पर्दाफाश करें! 

अडाणी के झांसे में न आएंगे न किसी को आने देंगे!
हम अपनी बहुफ़सली जमीन किसी कीमत पर न जाने देंगे!!

Dalit Discourse in Nepal : Issue of Tarai Dalits

Dalit Discourse in Nepal : Issue of Tarai Dalits



The Dalit discourse in Nepal mostly centered around the dominant Hill communities. The gap between hill, Tarai and Kathmandu valley is very much visible in the issues and understanding. Many of the friends actually did not even admit that there is manual scavenging in Nepal which might be true in terms of the hills but what about the Madhesh. When I was provided these question, I just thought as what kind of the work communities like Doms, Mushahars, Valmikis, Chamars and others do in Nepal. Either they have advance much and left the old traditional occupation or the people are not informing adequately. During my journey to Nepal in May, I decided to do some home work and found some very informative people engaged. Amar Lal Ram belong to Saptarani district of Nepal and in this conversation he narrates how he face the discrimination and what kind of discrimination exists there. We hope these conversations from Nepal will initiate a new political discourse among the Dalits and others in Nepal as well as in India. This is a very small attempt but I sincerely hope that it will reignite the debate of proportionate representation.

Listen to entire conversation at


regards,

How Can There Be an Indian Lincoln Mr Udit Raj? RAM PUNIYANI

How Can There Be an Indian Lincoln Mr Udit Raj?

RAM PUNIYANI
Saturday, August 27,2016
Dalit activist and the ruling Bharatiya Janata Party (BJP) member of parliament in the Lok Sabha, Udit Raj, in his recent article in the Indian Express titled"‘Where is The Indian Lincoln" highlights some pertinent questions and brings forth the issue of the caste related atrocities. But he goes on to hide things which are more crucial to the process of caste annihilation.

He is on the dot when he says that atrocities against Dalits are due to a mindset which regards them inferior. While this explains how such acts have been taking place earlier as well as now, he undermines the fact that this mindset is due to a political ideology which upholds the caste system in a subtle way.

What he hides is the fact that such atrocities have gone up during past two years. What he does not state is that the Jhajjar violence in Haryana was legitimised by late Vishva Hindu Parishad (VHP) leader Acharya Giriraj Kishore, who belonged to Udit Raj’s political family called Sangh Parivar.

It is true that many countries in Europe could do away with birth based hierarchy of class and gender due to industrial revolution ushering in a journey towards substantive democracy.

India could not achieve such a desirable goal due to the objective restraints imposed by the colonial rule. The industrial revolutions of the West did away with the feudal classes along with their feudal mindset which was justifying the birth-based hierarchies.

In India due to the colonial rule, we have seen the birth of modern institutions along with the foundation of modern society. The foundation and the growth of Indian nationalism did aspire for the formal equality of all irrespective of caste, religion and gender.

Colonial masters in India were least interested in doing away with feudal powers. ‘Feudal-Clergy’ nexus persisted and gave rise to nationalism in the name of religion. Both Muslim nationalism and Hindu nationalism thrived.

The pace of change in colonies is not comparable to the other places where the industrial class along with workers and women combine overthrows the social and political alliance of the feudal-clergy combine.

So in colonies the process of secularization remains arrested and in post colonial societies the feudal mindset persists with the patronage of the certain sections of society.

In these societies the meaning of the word revolution has to be restricted to social transformation. The day to day efforts for social transformation are the revolutionary steps in that sense. India had its own trajectory.

Starting with Jotirao Phule, the Dalits started a slow and long journey towards equality. The journey for women’s equality begins with Savitribai Phule. These streams are totally opposed by the conservative religious elements. These conservatives later crystallize themselves as Muslim League on one side and Hindu Mahasabha-RSS on the other.

The march of Indian nationalism accommodates Ambedkar in some form. While he struggles for social democracy through means of temple entry (Kalaram Mandir), access to public spaces (Chavdar Talao), he goes on to support the burning of Manusmriti and states his resolve for the social equality. We can’t be mechanistic in understanding revolution in diverse societies.

These steps like those of Jotirao, Saviritibai and Ambedkar, Periyar are revolutionary. These are hesitantly supported by Indian nationalism and totally opposed by Hindu nationalism.

Gandhi, a symbol of Indian nationalism, did his best to oppose untouchability, while his stand on reserved constituency can be questioned. Nehru, the architect of modern India, later oversees Ambedkar formulate a Constitution which not only gives formal equality to all but also affirmative reservations to the Dalits.

Nehru’s attempt to bring in reforms like the Hindu Code bill are sabotaged by conservatives within his party and conservatives and Hindu nationalists outside his party.

The persistence of subordination of Dalits is mainly due to the persistence of mindset of Hindu nationalism, which even had opposed the Indian Constitution when it was being formed.

The Hindu nationalists have been strong opponents of reservations all through; this is what led to anti Dalit riots in Ahmedabad in 1981 and the anti OBC violence again in Ahmedabad in 1986.

The Hindu nationalist BJP intensified its Ram Temple movement in the wake of Mandal Commission implementation.

Udit Raj is right that those perpetrating crimes have not been punished, but that again is due to the prevalent mindset, which has its roots in Hindutva ideology, which spills beyond the parties and organisations working for a Hindu Rashtra (nation) directly.

While longing for revolution is good, ignoring the revolutionary changes at slow speed is disastrous and the likes of Udit Raj sitting in the lap of the BJP, which has been the vehicle of counter revolution as far as social changes are concerned, is a big setback to the process of social change.

Since BJP is the political arm of RSS, which aspires for a Hindu nation, Hindutva via Hindu nationalism, Raj is contributing precisely to the processes which are hampering the transition of caste equations towards those of equality.

If he wakes up to realise as to how mindsets are formed, he will realise that among other things his party has been transforming national institutions towards the values which will promote an anti-Dalit mindset.

Just one example from many such incidents is the one where the BJP has appointed one Sudarshan Rao as head of Indian Council of Historical Research (ICHR). Rao argues that the caste system had no problems and nobody had complaints against that.

RSS, BJP’s ideological patron, goes on to say that all castes were equal and problems came in due to the invasion of Muslim kings!

All this is putting the wool in the eyes of society to perpetuate the ideology which is inherently castiest and leads to the strengthening of mindset which looks down upon Dalits.

So a Rohith Vemula or a Una violence happens.

If Indian Nationalist movement was a mini revolution, the present politics being unfolded by Hindu nationalism is a counter revolution, duly supported by the likes of Udit Raj.

And lastly, if one concedes that there has been no Lincoln in India, one can also look forward to the post Rohith Vemula-Una upsurge of youth, Dalits and non-Dalits, which is going in the direction of caste annihilation!

सरदार सरोवर संबंधी पर्यावरणीय कार्यपूर्ती की जांच जरूरी। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरणीय उपदल की बैठक में निर्णय। आज, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरणीय उपदल की बैठक इंदिरा पर्यावरण भवन में यानि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय में हुई। जिसमें चार, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात राज्य व केंद्र शासन के उच्च अधिकारी तथा केंद्र शासन व प्राधिकरण के अधिकारी उपस्थित थे। कुल करीबन 20 शासकीय व गैरशासकीय सदस्य तथा आमंत्रितों ने मिलकर विविध पर्यावरणीय मुद्दों पर चर्चा की। 6 साल बाद हुई इस बैठक में 2010 की बैठकों के मिनिट्स तथा नया अजेंडा भी रखा गया। सरदार सरोवर को सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी देते वक्त जून 1987 में डाली गई शर्तों की पूर्ति के मूल्यांकन पर बैठक में चर्चा हुई। इसके तहत जलग्रहण क्षेत्र उपचार, लाभक्षेत्र विकास, स्वास्थ्य पर असर, मत्स्य संपदा का विकास, भूकंप मापन व प्रतिबंधन, बांध के नीचे वास के क्षेत्र पर असर इन मुद्दों पर बहस हुई। राज्य सरकारों ने अपने कार्य पूर्ति के दावे सामने रखे। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की ओर से श्री अफरोझ अहमद ने परिपूर्ण व सतत निगरानी की गई है, यह कहकर कुछ उदाहरण पेश किए। अशासकीय सदस्यों ने 6 साल में नहीं हुई निगरानी एवं जाँच की जरूरत की बात उठाई। आज की धरातल की स्थिति समझना भी जरूरी बताया। केंद्रीय मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में हुई इस चर्चा का निष्कर्ष यह निकला कि आखिर पर्यावरणीय उपदल की प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यक्ष स्थिति की निष्पक्ष जाँच करनी होगी। एक गैरशासकीय सदस्य, पर्यावरणविद् शेखर सिंह ने कुछ मुद्दों पर पत्र प्रस्तुत करके पिछली बैठकों की मिनिट्स पर मंजूरी जतायी। आनेवाले एक महीने में निष्पक्ष जांच के मुद्दें एवं प्रक्रिया तय हो कर पर्यावरणीय शर्तपूर्ती तथा कार्यपूर्ती के बाबत फिर चर्चा होगी। तब तक बांध के कार्य को आगे ले जाने की मंजूरी की बात मौकूफ रखी गई। - मधुरेश कुमार, कैलाश अवास्या, कमला यादव, दिनेश तडवी, जीकुभाई तडवी

सरदार सरोवर संबंधी पर्यावरणीय कार्यपूर्ती की जांच जरूरी।
नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरणीय उपदल की बैठक में निर्णय।

आज, नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के पर्यावरणीय उपदल की बैठक इंदिरा पर्यावरण भवन में यानि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय में हुई। जिसमें चार, मध्यप्रदेश,महाराष्ट्रगुजरात राज्य व केंद्र शासन के उच्च अधिकारी तथा केंद्र शासन व प्राधिकरण के अधिकारी उपस्थित थे। कुल करीबन 20 शासकीय व गैरशासकीय सदस्य तथा आमंत्रितों ने मिलकर विविध पर्यावरणीय मुद्दों पर चर्चा की। 6 साल बाद हुई इस बैठक में 2010 की बैठकों के मिनिट्स तथा नया अजेंडा भी रखा गया।

सरदार सरोवर को सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी देते वक्त जून 1987 में डाली गई शर्तों की पूर्ति के मूल्यांकन पर बैठक में चर्चा हुई। इसके तहत जलग्रहण क्षेत्र उपचार,लाभक्षेत्र विकासस्वास्थ्य पर असरमत्स्य संपदा का विकासभूकंप मापन व प्रतिबंधनबांध के नीचे वास के क्षेत्र पर असर इन मुद्दों पर बहस हुई। राज्य सरकारों ने अपने कार्य पूर्ति के दावे सामने रखे। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण की ओर से श्री अफरोझ अहमद ने परिपूर्ण व सतत निगरानी की गई है, यह कहकर कुछ उदाहरण पेश किए। अशासकीय सदस्यों ने 6 साल में नहीं हुई निगरानी एवं जाँच की जरूरत की बात उठाई। आज की धरातल की स्थिति समझना भी जरूरी बताया।

केंद्रीय मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में हुई इस चर्चा का निष्कर्ष यह निकला कि आखिर पर्यावरणीय उपदल की प्रक्रिया के अनुसार प्रत्यक्ष स्थिति की निष्पक्ष जाँच करनी होगी। एक गैरशासकीय सदस्यपर्यावरणविद् शेखर सिंह ने कुछ मुद्दों पर पत्र प्रस्तुत करके पिछली बैठकों की मिनिट्स पर मंजूरी जतायी।

आनेवाले एक महीने में निष्पक्ष जांच के मुद्दें एवं प्रक्रिया तय हो कर पर्यावरणीय शर्तपूर्ती तथा कार्यपूर्ती के बाबत फिर चर्चा होगी। तब तक बांध के कार्य को आगे ले जाने की मंजूरी की बात मौकूफ रखी गई।



मधुरेश कुमारकैलाश अवास्याकमला यादवदिनेश तडवीजीकुभाई तडवी

सुप्रीम कोर्ट में ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत,सिंगुर में जमीन अधिग्रहण रद्द क्या बेदखल किसानों को जमीन वापस मिलेगी? क्या भारत में गैरकानूनी जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा? जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला रुकेगा? एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास हस्तक्षेप संवाददाता

सुप्रीम कोर्ट में ममता बनर्जी की ऐतिहासिक जीत,सिंगुर में जमीन अधिग्रहण रद्द

क्या बेदखल किसानों को जमीन वापस मिलेगी?

क्या भारत में गैरकानूनी जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा? जल जंगल जमीन से बेदखली का सिलसिला रुकेगा?

एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

हस्तक्षेप संवाददाता

क्या किसानों को जमीन वापस मिलेगी?


क्या भारत में गैरकानून जमीन अधिग्रहण के शिकार बाकी लोगों को न्याय मिलेगा?


सिंगुर जमीन अधिग्रहण मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद बंगाल के राजनीतिक समीकरण में वामपंथियों के और ज्यादा हाशिये पर चले जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल ये हैं।


बंगाल की अग्निकन्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के राजनीतिक जीवन की शायद यह सबसे बड़ी जीत है जो दो दो बार विधानसभा चुनाव भारी बहुमत से जीतने से भी बड़ी जीत है।यह जीत जल जगंल जमीन की लड़ाई में शामिल जनपक्षधर ताकतों की भी ऐतिहासिक जीत है।


सुप्रीम कोर्ट ने सिंगूर में जमीन अधिग्रहण को गलत ठहराया है और जमीन अधिग्रहण पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने फैसले में कहा कि सिंगूर में जमीन अधिग्रहण गलत है। कानूनी रूप से यह जमीन अधिग्रहण सही नहीं था। लिहाजा राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) ऐसे जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती।


सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को 12 हफ्तों में किसानों की जमीन को वापस लौटाने का आदेश दिया है।


सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने लेफ्ट सरकार पर सवाल उठाते हुए कहा था कि लगता है सरकार ने प्रोजेक्ट के लिए जिस तरह जमीन का अधिग्रहण किया वह तमाशा और नियम कानून को ताक पर रखकर जल्दबाजी में लिया गया फैसला था, वहीं टाटा ने मामले को 5 जजों की संवैधानिक पीठ को भेजे जाने की मांग की थी।


सिंगुर जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन में सड़क पर उतरकर जो लड़ाई ममता ने शुरु की थी और सत्ता में आने के बाद सिंगुर के किसानों को छिनी हुई जमीन वापस करनेे की जो कानूनी कवायद उन्होंने जारी रखी लगातार,उसमें उन्हें आज भारी जीत हासिल हुई है।


भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कोलकाता हाई कोर्ट के आदेश को ख़ारिज करते हुए सिंगुर में नैनो प्रोजेक्ट के लिए टाटा मोटर्स के जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया है।


जमीन अधिग्रहण प्रक्रिया में गड़बड़ी पाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अधिगृहित ज़मीनें किसानों को अगले 12 हफ्तों के भीतर लौटा दी जाए।


अदालत के मुताबिक ज़मीन अधिग्रहण कलेक्टर ने भूखंडों के अधिग्रहण के संबंध में किसानों की शिकायत की ठीक से जांच नहीं की।


आजादी के बाद से अब तक जमीन अधिग्रहण का कुल मिलाकर किस्सा यही है।न कहीं जन सुनवाई होती है और ने बेदखल किसानों की किसी भी स्तर पर न्याय मिलता है।एकतरफा जमीन अधिग्रहण अबाध पूंजी निवेश का मुक्तबाजारी खेल बन गया है जिससे आम नागरिकों के जल जंगल जमीन के हकहकूक खत्म हो गये हैं।


जमीन अधिग्हण के बाद पूरे दस साल बीत गये हैं और सिंगुर की उपजाऊ जमीन अब कंक्रीट का खंडहर है,जहां से नैनो प्रोजेक्ट की वापसी हो चुकी है और टाटा मोटर्स के लिए विवादास्पद तरीके से जबरन जमीन हासिल करने की वजह से 35 साल के वाम शासन का अवसान हो गया है।


इसी बीच ममता बनर्जी लगातार दूसरी दफा विधानसभा चुनाव जीतकर बंगाल की सर्वेसर्वा बन चुकी है और इस अदालती फैसलेे के बाद बंगाल में वाम पक्ष की वापसी की संभावना और मुश्किल हो चुकी है।


गौरतलब है कि उद्योग और कारोबारी जगत के जबर्दस्त दबाव के बावजूद ममता बनर्जी सिंगुर नंदीग्राम आंदोलन की विरासत जी रही हैं और उनकी सरकार अब भी जबरन जमीन अधिग्रहण के खिलाफ है।जबकि सिंगुर को बंगाल में उद्योगों के लिए कब्रगाह कहा जा रहा है।ममता की जमीन अधिग्रहण विरोधी नीति की वजह से बंगाल में पूंजी निवेश नहीं हो रहा है,इसके बावजूद ममता ने अपनी नीति नहीं बदली है।


इससे बड़ा सवाल यह है कि क्या किसानों को उनकी छिनी हुई जमीन वापस मिल सकेगी और यह जमीन वापस मिल भी गयी तो कंक्रीट के खंडहर में तब्दील उस जमीन पर वे कब तक दोबारा पहले की तरह साल में तीन बार सोने की फसल फैदा कर सकेंगे।

अंधाधुंध शहरीकरण और औद्योगीकरण की अंधी दौड़ और विकास के बहाने आम जनता को जल जंगल जमीन से बेदखल करने के अभियान पर क्या इस फैसले के लागू हो जाने का कोई असर पड़ेगा और सिंगुर की तरह देशभर में जबरन अपनी जमीन से बेदखल लोगों को क्या उनके हक हकूक की बहाली के साथ जमीन वापस मिलेगी।


अभी लंबी कानूनी लड़ाई बाकी है।

फिरभी यह कहना ही होगा कि सत्ता में आने के बाद जिसतरह ममता बनर्जी ने किसानों को सिंगुर में जमीन वापस दिलाने की कानूनी लड़ाई जीत ली है,इससे जल जंगल जमीन की लड़ाई में जीत का नया सिलसिला बन ही सकता है।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने सिंगुर मसले पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि तत्‍कालीन वाममोर्चा सरकार ने जमीन अधिग्रहण मामले में टाटा कंपनी को फायदा पहुंचाया था। कोर्ट ने कहा कि अधिग्रहण का फैसला कानून के मुताबिक सही नहीं था।


गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन वाममोर्चा सरकार के सिंगुर मसले के फैसले को ग़लत बताया और कहाकि 997 एकड़ की जिस जगह का अधिग्रहण सरकार ने टाटा के नैनो प्लांट के लिए किया था वो सही नहीं था। सरकार ने अपनी शक्तियों का ग़लत इस्तेमाल कर प्राइवेट पक्ष को फायदा पहुंचाया।


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सिंगुर में भूमि अधिग्रहण के बारे में उच्चतम न्यायालय के फैसले को एतिहासिक जीत बताया। ममता ने यहां राज्य सचिवालय में संवाददाताओं के साथ बातचीत में कहा, सिंगुर पर उच्चतम न्यायालय का फैसला एतिहासिक जीत है।


ममता बनर्जी नेआंदोलन के दौरान  सिंगुर के जमीन से बेदखल आंदोलनकारी किसान की बेटी तापसी मलिक को श्रद्धांजलि दी जो कि भूमि अधिग्रहण के विरोध में गठित कृषि जमी रक्षा समिति के अभियान में सबसे आगे थी। इस 18 वर्षीय लड़की का अधजला शव 18 दिसंबर 2006 को परियोजना स्थल के निकट मिला था।


जाहिर है कि इस फैसले से टाटा मोटर्स को करारा झटका लगा है। सुप्रीम कोर्ट ने जमीन अधिग्रहण को रद्द कर दिया है। कोर्ट ने पश्चिम बंगाल सरकार को आदेश दिया कि किसानों की जमीन 12 हफ्ते मे वापस की जाए। साथ ही दिया हुआ मुआवजा भी किसान सरकार को वापस नही करेंगे। वहीं इस फैसले के बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि फैसले के बाद मेरी आंखों में खुशी के आंसू हैं। मुझे पूरा यकीन है कि आज सिंगुर में जश्न मनाया जाएगा। 2 सितंबर को सिंगुर के हर ब्लॉक में जश्न मनाएंगे।



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फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह इसीलिए भारत हुआ अमेरिका


फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका

The Hitler Speech They Don't Want You To Hear - YouTube

Video for the hitler▶ 10:00

https://www.youtube.com/watch?v=G57GKUtWzNs

Oct 24, 2012 - Uploaded by EuropeanWatchman3

http://www.youtube.com/user/NorthwestFreedom http://www.northwestfront.org http://www.northwestfront.net .


पलाश विश्वास

हिटलर को जानने के लिए इतिहास का सबक अभीतक कमसकम भारतवासियों के लिए पर्याप्त नहीं है।वैसे भी हम भारतवासी इतिहास और विरासत,सामाजिक यथार्थ और राजनीतिक वास्तव,अर्थव्यवस्था और मातृभाषा,लोकसंस्कृति और पुरखौती की जड़ों से कटकर मुक्तबाजार के अंतरिक्ष में त्रिशंकु हैं।


जगत मिथ्या और माया की मृगतृष्णा के बारे में भारतीय दर्शन परंपरा और आध्यात्म की धर्मनिरपेक्षता,चार्बाक दर्शन और लोकगणराज्यों की जमीन से हमारा अब कोई नाता नहीं है।क्रयशक्ति हासिल करके अपनी मजहबी, जाति, नस्ल, भाषा के आधार पर हम निराधार नागरिक हैं.जिन्हें हर हाल में सत्ता से जुड़े रहना है और राष्ट्र हमारे लिए कल्पतरु है जिसके दोहन से मनोकामना दूर हो सकती है।


आस्था भी हमारे लिए ईश्वर से सौदेबाजी का फंडा है।


बहरहाल,हिटलर को समझने का आसान तरीका है कि यू ट्यूब पर उपलब्ध चार्ली चैपलिन की कालजयी फिलम द डिक्टेटर देख लें।फिर हमारे राष्ट्रनेता कल्कि महाराज की मंकी बातें सुनते रहे तो बोध,विवेक और प्रज्ञा की मनुष्यता से साक्षात्कार हो सकता है जो दरअसल ईश्वर का दर्शन है।


सत्य से बड़ा ईश्वर कुछ होता नहीं है और मनुष्य से बड़ा सत्य कुछ होता नहीं है।फासिज्म दरअसल ईश्वर और मनुष्य की सत्ता का निरंतर निषेध पर आधारित नरसंहार की संस्कृति है जो अश्वमेधी हमलावर है और उसके सारे कर्म कांड आस्था और धर्म के विरुद्ध मनुष्यता और ईश्वर के प्रति अनास्था है।


भारतीय दर्शन परंपरा से लेकर वैदिकी साहित्यभंडार में इसके अनंत प्रसंग और संदर्भ है।यह राष्ट्रीयता के नाम पर राष्ट्र और विखंडन है जो सत्तावर्ग का शेयर बाजार है और यही शेयर बाजार मुक्त बाजार और हिंदुत्व का सैन्य राष्ट्र है,जो ईश्वर, प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति,लोकतंत्र और मनुष्यता के विरुद्ध निरंतर युद्ध,गृहयुद्ध हैं।


हमारे तमाम राष्ट्रनेता इन आत्मघाती युद्धों के रंगबिरंगे सिपाहसालार हैं,जो पल दर पल राष्ट्र और समाज,मनुष्यता और प्रकृति का सर्वनाश के कार्यक्रम को इतिहास और विरासत, धर्म और आस्था,सत्य और संस्कृतिके विरुद्ध अधर्म का कटकटेला अंधियारा कारोबार है।


हिटलर शाही के नतीजे सिर्फ जर्मनी,जापान और इटली को भुगतने पड़े हों,ऐसा भी नहीं है।समूची दुनिया को इसका नतीजा भुगतना पड़ा है।विश्वयुद्ध से लेकर बंगाल की भुखमरी तक और भारत विभाजन तक।

हम आत्मध्वंस के चरमोत्कर्ष पर हैं।


फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका


हुआ दरअसल यह है कि भारत और अमेरिका ने आपसी सामरिक संबंधों को बढ़ावा देते हुए एक बड़े साजो-सामान आदान-प्रदान करार पर हस्ताक्षर किए हैं। इससे दोनों देशों की सेनाएं एक-दूसरे की सुविधाओं एवं ठिकानों का उपकरणों की मरम्मत एवं आपूर्ति को सुचारू बनाए रखने के लिए उपयोग कर सकेंगे। इस अहम रक्षा समझौते से जुड़ीं खास बातें. रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एवं अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) पर हस्ताक्षर किए।दावा है कि इससे दोनों देशों के संयुक्त सैन्य अभियानों की दक्षता में इजाफा होगा।


हम यह नजरअंदाज कर रहे हैं कि हम भारतीयों की तरह अमेरिकियों के ख्वाब भी खतरे में हैं।अमेरिका में भी लोकतंत्र खतरे में हैं।


हम तेल युद्ध और अरब वसंत के बाद भारतीय उपमहादेश में वैश्विक युद्धस्थल के स्थानांतरण का भयानक सच नजरअंदाज कर रहे हैं।


दरअसल यही ब्रह्मणधर्म का पुनरूत्थान है।

दरअसल यही मनुस्मृति फासिज्म का राजकाज है।

दऱअसल यही हिंसा,घृणा,वैमनस्य और आतंक की केसरिया सुनामी है।


हम देख नहीं पा रहे हैं कि विश्वशांति और मनुष्यता और प्रकृति के खिलाफ युद्ध अपराधी जार्ज बुश ने मध्यपूर्व को तबाह करने के बाद भारतीयउपमहाद्वीप को अमेरिकी उपनिवेश बनाने की रणनीति के तहत भारत को अमेरिका का उपनिवेश बनाया है।


हम यह भी जाहिर है कि देख नहीं पा रहे हैं कि भारत में विभिन्न समुदायों के बीच वैमनस्य और अभूतपूर्व हिंसा का यह प्रकृतिविरोधी पर्यावरण दरअसल परमाणु विध्वंस का रचनाकर्म अरब वसंत है जो सीधे वाशिंगटन के व्हाइट हाउस और पेंटागन से आयातित है और भारतीय इतिहास में,संस्कृति में,धर्म में,आस्था और आध्यात्म में,लोकसंस्कृति में,भारतीय दर्शन में इसके लिए कोई जगह नहीं है और इसीलिए अमेरिका परस्त ब्राह्मणधर्म और मनुस्मृति राज के फासिस्ट झंडावरदारों को अमेरिकी हितों के मुताबिक भारत का इतिहास बदलने और शिक्षा और संस्कृति के केसरियाकरण की इतनी जल्दबाजी है।


हम देख नहीं पा रहे हैं अमेरिकी राष्ट्रपतियों के भारतविरोधी नीतिगत सिद्धांतों और उनकी भारतविरोधी राजनय का इतिहास।


हम यह भी  देख नहीं पा रहे हैं कि तेल अबीब  के समर्थन से व्हाइट हाउस की लड़ाई में जीतने वाले मैडम हिलेरी या डोनाल्ड ट्रंप के भारतविरोधी चरित्र और जायनी युद्ध में भारत के  पार्टनर बने रहने के नतीजे भारत के लिए कितने खतरनाक होंगे।


इस करार के बाद भारत के दस दिगंत सत्यानाश में चाहे ट्रंप जीते या मैडम हिलेरी,कोई फर्क उसीतरह नहीं पड़ेगा जैसे जार्ज बुश के बाद लगातार दो कार्यकाल में अश्वेत राष्ट्रपति बाराक ओबामा के व्हाइट हाउस निवास से अमेरिकी हितों के मुताबिक भारतीय हितों की बलि चढ़ाने के सिलसिले में कोई अंतर नहीं आया।


इस पर तुर्रा यह कि ओबामा ने हर कदम पर भारत में फासिज्म के राजकाज का समर्थन किया है।जाहिर है कि इस करार के बाद अमेरिकी हितों के मुताबिक ही भारत में ब्राह्मणवादी फासिज्म का शिकंजा और मजबूत होने वाला है।


अमेरिकी मदद से भारतीय जनता पर सैन्य दमन का कहर टूटने वाला है।

दरअसल अमेरिका बना भारत ही अब कयामत का असल मंजर है।


अभी कल परसो हमारे पुरातन पाठकों के फोन आये कि अमेरिका से सावधान छपा कि नहीं।पिछले दो दशक के दौरान भारतभर में लोग हमसे यह सवाल करते रहे हैं।


इसका सीधा मतलब है कि करीब दस साल तक देशभर में लघु पत्रिकाओं और अखबारों में,पंफलेट तक में छपे मेरे इस औपन्यासिक साम्राज्यवाद विरोधी अभियान और संवाद से बड़े पैमाने पर लोगों का जुड़ाव रहा होगा।इसके बावजूद आज भारत अमेरिका है।इस आत्मध्वंसी करार के बाद भारत राष्ट्र के अलग संविधान बेमायने हैं क्योंकि सत्तावर्ग के हित अमेरिकी हित हैं।यह ऐसा ही है जैसे कि भारत में सहस्राब्दियों से विदेशी हमलावरों के साथ नत्थी हो जाने की रघुकुल रीति अटूट है।


इस सिलसिले में मशहूर फिलमकार आनंद पटवर्दन की टिप्पणी गौरतलब हैः

The news is horrifying. India - USA agree to share military bases ! Modi and gang are surrendering our sovereignty piece by piece. USA destroyed Pakistan by creating Islamic jihad. Now it has acquired a new bali ka bakra.


गौरतलब है कि चीन के सरकारी मीडिया ने आज कहा है कि भारत की ओर से अमेरिका के गठबंधन से जुड़ने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वे चीन, पाकिस्तान और यहां तक कि रूस को भी 'नाराज' कर सकते हैं। ये प्रयास भारत को एशिया में भूराजनीतिक शत्रुताओं के केंद्र में लाकर नई दिल्ली के लिए 'रणनीतिक परेशानियां' पैदा कर सकते हैं। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर और अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर द्वारा साजो सामान संबंधी विशद समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने से पूर्व लिखे गए एक संपादकीय में सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने कहा कि यदि भारत अमेरिका की ओर झुकाव रखता है तो वह अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता खो रहा है।


दुनियाभर में अपने अपने हितों के मुताबिक अमेरिकी हितों में भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता के विलय की प्रतिक्रया हो रही है।


सत्य यह है कि अमेरिका भारत को स्वतंत्रता के तुरंत बाद से लगातार अस्थिर करता रहा है।साठ के दशक से अमेरिकी खुफिया एजंसी सीआईए का नेटवर्क भारत में बना हुआ है और विघटनकारी तमाम गतिविधियों में खासतौर पर सत्तर और अस्सी के दशक में देश के विभिन्न हिस्सों में हुए नरसंहारी उत्पातों के पीछे भारत के अमेरिकीकरण में अपना विकास और वैभव की तलाश में राष्ट्रद्रोही सत्तावर्ग की पंचमवाहिनी के सहयोग से अमेरिका की निर्णायक भूमिका रही है।


सत्य यह है कि अमेरिका भारत का मित्र कभी नहीं रहा है और न अमेरिका भारत का मित्र हो सकता है।अपनी डूबती हुई युद्धक अर्थव्यवस्था को संकटमुक्त करने के लिए खाड़ी युद्धसमय से अमेरिका ने भारतीय लोकतंत्र,अर्थव्यवस्था और राष्ट्र व्यवस्था पर अपना शिकंजा कस लिया है और तबसे नवउदारवाद और मुक्तबाजार की आड़ में राजकाज दरअसल वाशिंगटन से चल रहा है और भारत सरकार सूबेदारी की भूमिका में है।समूचा सत्तावर्ग और राजकरण पंचमवाहिनी में तब्दील है।


सत्य यह है कि राष्ट्रद्रोह सत्ता संस्कृति है,जिसे अंध राष्ट्रवाद के जरिये जनगण की आस्था सो जोड़कर ब्राह्मणधर्म का यह मनुस्मृति जायनी द्वैत पुनरूत्थान पर्यावरण ग्लोबल वार्मिंग है।यही फिर धर्मोन्मादी मुक्तबाजार है।


सत्य यह है कि नीतिगत फैसलों से लेकर वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री तक की नियुक्तियों के पीछे,सत्ता परिवरितन के पीछे,राजकरण के पीछे,अर्थव्यवस्था के वित्तीय प्रबंधन के पीछे,योजनाओं और बजट बनाने के पीछे,आम नागरिकों की गोपनीयता खत्म करके उनकी निरंतर निगरानी के पीछे, देश भर में दमन उत्पीड़न और जल जमीन जंगल से बेदखली अभियान के पीछे, सैन्य टकरावों के पीछे,रक्षा तैयारियों के पीछे,भारतीय राजनय के पीछे अमेरिकी हाथ है।


भारत में फिर गुलामवंश का राजकाज फासिज्म है।इतिहास गवाह है कि गुलाम सत्तावर्ग के इस राष्ट्रद्रोह की वजह से भारत बार बार गुलाम होता रहा है।विदेशी हुकूमत में सत्ता वर्ग को कभी कोई तकलीफ हुई नहीं है और न होगी।


इसीलिए भारत में सत्ता नाभिनाल से जुड़े कारपोरेट मीडिया,प्रबुद्ध पढ़ा लिखा तबका,राजनीति,माध्यमों और विधाओं की ओर से  पिछले 25 साल से भारत अमेरिका मैत्री का महिमामंडन होता रहा है और समाज का उपभोक्ताकरण इस हद तक हो गया है कि भारतीय मूल्यों ,भारतीय परंपराओं और भारतीय संस्कृति के विरुद्ध इस जघन्यतम राष्ट्रद्रोह अब हिदुत्व का संगठित संस्थागत जनसंहारी स्वरुप है।


समूचा राष्ट्र इस वक्त परमाणु भट्टी में तब्दील है।भारत अमेरिका परमाणु समझौते के बाद बाकी परमाणु शक्तियों से समझौते के तहत देश के चप्पे चप्पे में मनुष्य और प्रकृति के विध्वंस के लिए परमाणऩु चूल्हे लग रहे हैं और इस हिंदुत्व एजंडा को अंजाम देने के लिए करीब पांच हजार साल की भारतीय सभ्यता और संस्कृति.,धर्म कर्म दर्शन आध्यात्म,आस्था और लोकसंस्कृति,सहिष्णुता,विविधता,बहुलता,धम्म चक्र,काल चक्र,हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो की सभ्यता,रेशम पथ का विश्वबंधुत्व,सत्य अहिंसा और प्रेम की लोकसंस्कृति,करुणा,बंधुत्व और शांति की बलि दी जा रही है।


हजारों साल के विलय और एकीकरण से मनुष्यता की विविध धाराओं के भारततीर्थ में फिर कुरुक्षेत्र है और हर नागरिक चक्रव्यूह में निहत्था मारा जा रहा है।हमारे सारे समुद्रतट अब रेडियोएक्टिव हैं तो भोपाल गैस त्रासदियों का सिलसिला मुक्तबाजार है।परमाणु चूल्हों के लिए संस्कृतियों के साझा चूल्हा खत्म करके हम भारत में अमेरिकी वसंत का महोत्सव मना रहे हैं और सम्यक दृष्टि और प्रज्ञा,अविनश्वर आत्मा परमात्मा,द्वैतवाद और अद्वैतवाद,सर्वेश्वरवाद की परंपरा में नरनारायण की हत्या लीला अबाध पूंजी के अमेरिकी हितों की रासलीला है।


विडंबना है कि देशभक्तों,राष्ट्रवादियों,स्वयंसेवियों,सामाजिक कार्यकर्ताओं,भारत के धर्मनिरपेक्ष ताकतों,जनपक्षधर मोर्चा,जनांदोलनों,मीडिया,पढ़ा लिखा तबका, संगठित ट्रेड यूनियनों,बहुजनों के अंबेडकरी संस्थानों,स्वदेश और स्वायत्तता के झंडेवरदारों,आस्था के कारोबारियों और हिंदुत्व की वानर सेनाओं,भारतीय साम्यवादियों,गांधीवादियों और समाजवादियों ने इस दुश्चक्र के खिलाफ अभीतक आवाज नहीं उठायी और किसानों को सामूहिक आत्महत्या करनी पड़ रही है तो युवाजनों के हाथ पांव काट दिये गये हैं।तो श्रमजीवी जनगण और स्त्रियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।अभूतपूर्व सामंती पितृसत्ता का बवंडर है तो मनुस्मृति अनुशासन के तहत ब्राह्मणधर्म का पुनरूत्थान के साथ विशुध अमेरिकीकरण है।


हम भारत को देख नहीं रहे हैं।हम लहूलुहान आम जनता की रोजमर्रे की नरकयंत्रणा से बेपरवाह वातानुकूलित सत्तावर्ग के प्रजाजन अमेरिकी हितों को पाकिस्तान और चीन के खिलाफ अमेरिकी छायायुद्ध के तहत सिरे से नजरअंदाज करते हुए खुशी खुशी अमेरिका बन जाने का महोत्सव मना रहे हैं और देश के हर हिस्से में युद्ध और गृहयुद्ध,अत्याचार,दमन,उत्पीड़न,सैन्य शासन,धर्मोन्माद,अभूतपूर्व हिंसा,रंगभेदी जाति युद्ध के कयामती मंजर से बेखबर हैं क्योंकि हम अब अमेरिका और इजराइल के रणनीतिक युद्धक पार्टनर है,जिसकी तार्किक परिणति यह ताजा करार है जिसे हम भारत के महाशक्ति बन जाने के दिवास्वप्न में महिमामंडित कर रहे हैं और राष्ट्र और समाज.प्रकृति और मनुष्यता पर कसते हुए सामंती साम्राज्यावादी शिकंजे से बेपरवाह हैं।इसके बावजूद हम लोक गणराज्य हैं।


भारत की आजादी के बाद से त्ताकील अमेरिका और सोवियत संघ से समान दूरी बनाये रखने की भारत की राजनयिक परंपरा रही है और 1971 के बंग्लादेश संकट के समय भारत के खिलाफ हिंद महासागर में अमेरिकी सातवें नौसैनिक बेड़े की आक्रामक बढ़त के हालात में सोवियत संघ से मैत्री समझौते पर दस्तखत के बावजूद श्रीमती इंदिरा गाधी ने भारतीय विदेश नीति और राजनय की निर्गुट परंपरा बनायी रखी।


सोवियत संघ के साथ गहराते मैत्री संबंधों के बावजूद भारतीय राजनय निर्गुट बनी रही।यहां तक कि जनता पार्टी की भारी जीत की वजह से इंदिरा गांधी की सत्ता से बेदखली के बाद जनता सरकार में विदेश मंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने भी विदेश नीति और राजनय के मामले में भारत की संप्रभुता और स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।


इसके अवाला 1962 के सीमा संघर्ष के बाद बेहद बिगड़े हुए भारत चीन द्विपाक्षिक संबंधों को सुधारने में भी अटल जी की ऐतिहासिक भूमिका रही है।


बल्कि खाड़ी युद्ध के वक्त जब राजनीतिक अस्थिरता के मध्य अभूतपूर्व भुगतान संकट में भारत को सोना तक गिरवी रखना पड़ा,तब समाजवादी प्रधानमंत्री चंद्रशकर ने भारत की निर्गुट राजनय और विदेश नीति को पहलीबार तिलांजलि दी और उसके बाद से लगातार अमेरिकी हितों के मुताबिक राष्ट्रद्रोह के राजकाज का सिलसिला जारी है।


खाड़ी युद्ध के दौरान इराक के महाविनाश के लिए अमेरिकी युद्धक विमानों को भारत में भरने की इजाजत देकर समाजवादी आंदोलन के ताबूत में आखिरी कीलें ठोंक दी थी समाजवादी चंद्रशेखर ने और उनके राजकाज के दौरान उत्पन्न भुगतान संतुलन के खुल्ला दरवादजे से  अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक के ऋण की शर्त के मुताबिक अमेरिका ने नवउदारवाद और मुक्तबाजार के ईश्वर डा. मनमोहन सिंह को भारत का वित्तमंत्री बनाकर भारत में अमेरिकी उपनिवेश की स्थापना कर दी।


इसीके साथ अमेरिकीपरस्ती का अनंत राष्ट्रद्रोह भारत का राजकाज है और ब्राह्मणधर्म के पुनरूत्थान के बाद यह अमेरिकापरस्ती सीधे तौर पर मनुस्मृति राज है जो जायनी विश्वव्यवस्था के सिक्के का दूसरा पहलू है।


हांलाकि विपक्ष के नेता राजीव गांधी के कड़े विरोध के कारण अमेरिकी युद्धक विमानों को भरत में ईंधन भरने की इजाजत चंद्रशकर ने हफ्तेभर में वापस ले ली थी।


अमेरिकी उपनिवेश की स्थापना में चंद्रशेखर के युद्ध अपराध का खास तात्पर्य इंदिरा गांधी के हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाये रखने की राजनय के मद्देनजर समझें तो इसका ऐतिहासिक मतलब समझ में आ सकता है।


गौरतलब है कि जिस तरह आपरेशन ब्लू स्टार की परिणति बतौर राष्ट्र को इंदिरागांधी की हत्या और उसी सिलसिले में सिख नरसंहर के भयावह दौर से गुजरना पड़ा, खाड़ी युद्ध में इराक के बचाव के लिए मास्को उड़ जाने वाले और चंद्रशेखर के अमेरिकापरस्त फैसलों को पलट देने वाले राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने के बहाने उसीतरह अचानक  आत्मघाती बम धमाके में प्राण गवांने पड़े।


अमेरिकी हितों के खिलाफ हिंद महासागर को शांति क्षेत्र बनाये रखने के पक्षधर भारत के दो दो प्रधानमंत्रियों की हत्या का रहस्य अभी तक अनसुलझा है।इन दोनों की हत्या के बाद बिना प्रतिरोध भारत अमेरिकी उपनिवेश है तो इस भरत अमेरिकी सैन्य सहयग संधि का आशय हमें इंदिरा गांधी की दियागो गार्सिया नीति की रोशनी में समझने की जरुरत है।


विडंबना यह है कि इंदिरा गांधी ने हंद महासागर क्षेत्र के दियागो गार्सिया में अमेरिकी सैनिक अड्डा न बनने देने की नीति पर अडिग रहकर अपना बलिदान कर दिया लेकिन बाद में भारते के राष्ट्रद्रोही राष्ट्रनेताओं ने भारत की सरजमीं को ही अमेरिका में तब्दील कर दिया।


फासिज्म का राजकाज राष्ट्रद्रोह

फासिज्म की राजनय राष्ट्रद्रोह

फासिजम का राजधर्म राष्ट्रद्रोह

राष्ट्रवाद के नाम राष्ट्रद्रोह

इसीलिए भारत हुआ अमेरिका



मीडिया के मुताबिक इस अहम रक्षा समझौते से जुड़ीं खास बातें

  • रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर एवं अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर ने साजो-सामान आदान-प्रदान सहमति करार (एलईएमओए) पर हस्ताक्षर किए।

  • इससे दोनों देशों के संयुक्त सैन्य अभियानों की दक्षता में इजाफा होगा।

  • अमेरिका अपने स्तर पर भारत के साथ रक्षा व्यापार एवं टेक्नोलॉजी को बढ़ाने पर सहमत हुआ है।

  • यह भारत को उस स्तर के बराबर ले जाएगा, जो अमेरिका के नजदीकी सहयोगी एवं भागीदारों को प्राप्त है।

  • बड़े रक्षा सहयोगी के दर्जे से वे पुरानी बाधाएं खत्म हो गई हैं, जो रक्षा, रणनीतिक सहयोग के आड़े आते थे.

  • इस रणनीतिक सहयोग में सह-उत्पादन, सह-विकास परियोजनाएं एवं अभ्यास शामिल हैं।

  • इससे व्यावहारिक संबंध एवं आदान-प्रदान के लिए अवसर का सृजन होगा।

  • रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने कहा कि अमेरिका रक्षा उपकरणों के भारत के प्राथमिक स्रोतों में से एक है और उसने अपने कई अहम मंचों को साझा किया है।

  • कार्टर ने कहा कि यह दर्जा अमेरिका और भारत के पिछले साल के रक्षा संबंध के मसौदे की सफलता पर आधारित है।

  • जून में पीएम मोदी की यात्रा के दौरान अमेरिका ने भारत को एक 'बड़े रक्षा साझेदार' का दर्जा दिया था।


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