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Tuesday, August 2, 2016

पकी हुई जमीन पर जमे मजबूत पांव सबसे ज्यादा जरुरी और आंदोलन से ज्यादा जरुरी संगठन सुनामियों से कुछ नहीं बदलता है और समीकरण से सिर्फ सत्ता बदलती है अंबेडकर की जाति से ही अंबेडकरी आंदोलन को सबसे बड़ा खतरा अंबेडकरी आंदोलन से जुड़े महाराष्ट्र से बाहर के तमाम अंबेडकर अनुयायी यह बात बेहद अच्छी तरह महसूस करते हैं और इसी शिकायत की तहत ही बार बार अंबेडकरी संगठनों,पार्टियों और आंदोलन का वि�

पकी हुई जमीन पर जमे मजबूत पांव सबसे ज्यादा जरुरी और आंदोलन से ज्यादा जरुरी संगठन

सुनामियों से कुछ नहीं बदलता है और समीकरण से सिर्फ सत्ता बदलती है


अंबेडकर की जाति से ही अंबेडकरी आंदोलन को सबसे बड़ा खतरा

अंबेडकरी आंदोलन से जुड़े महाराष्ट्र से बाहर के तमाम अंबेडकर अनुयायी यह बात बेहद अच्छी तरह महसूस करते हैं और इसी शिकायत की तहत ही बार बार अंबेडकरी संगठनों,पार्टियों और आंदोलन का विघटन होता रहा है।

आज महाराष्ट्र में इसी ब्राह्मणवादी  जाति वर्चस्व की वजह से हजार टुकड़ों में बंटा है अंबेडकरी आंदोलन और अंबेडकर के नाम चल रही दुकानों के सबसे ज्यादा मालिकान भी बाबासाहेब की जाति के लोग हैं,जिनके यहां संवाद और लोकतंत्र निषिद्ध है और ब्राह्मण भले जाति उन्मूलन को वैचारिक स्तर पर अपना एजंडा मान लें,वे जाति वर्चस्व को तोड़ नहीं सकते।इसीलिए अंबेडकर भवन जैसे ध्वस्त हुआ,बाबासाहेब का मिशन भी बेपता लापता है।इसीलिए दलितों की ताकत समझकर गोरक्षकों का हमला तेज से तेज है।अब तो बंगाल जैसे राज्य में भी गोरक्षक खुलेआम गायों की गिनती कर रहे हैं और पूरा बंगाल केसरिया होने लगा है।


पलाश विश्वास

सुनामियों से कुछ नहीं बदलता है और समीकरण से सिर्फ सत्ता बदलती है।

पकी हुई जमीन पर जमे मजबूत पांव सबसे ज्यादा जरुरी और आंदोलन से ज्यादा जरुरूी संगठन।बिना संगठित हुए भावनाओं की सुनामी के भरोसे बदलाव की उम्मीद बमायने हैं क्योंकि बदलाव के लिए और बदलाव के बाद भी संगठन अनिवार्य है।राजनीतिक संगठन नहीं,पहले सामाजिक संगठन अनिवार्य है।


यह बाबासाहेब का दिखाया हुआ पथ है तो महात्मा गौतम बुद्ध का धम्म भी आखिरकार आस्था या कर्म कांड या तंत्र मंत्र नहीं,बल्कि संगठित सामाजिक आंदोलन है।बुनियादी बदलाव का संगछित ढांचा और जीवन दर्शन ही गौतम बुद्ध का धर्म है।संगठन की बात हम किसी मौलिक विचारधारा के तहत नहीं कह रहे हैं और यह आधार हमारे इतिहास,लोक और विरासत की जमीन है,जिससे हम बेदखल हैं।


इसी तरह हमें बुद्धमय भारत के अवसान की असली वजहों की जांच पड़ताल करके खोयी हुई जमीन का दखल हासिल करना है और इससे कम किसी सूरत में धर्म परिवर्तन जैसे शार्टकट से बदलाव होंगे नहीं,यह बात समझ लें।


राजनीति और संगठन अलग बातें है।संगठन के बिना राजनीति संभव है।लेकिन बिना संगठन बदलाव असंभव है।धम्म का कुल सार यही है।संगठन के लिए ही आचरण है और आचरण के लिए पंचशील का अनुशीलन है।बाकी सबकुछ हवा हवाई है।


विमर्श की भाषा या संवाद या वैज्ञानिक दृष्टि अब क्रिया प्रतिक्रिया के झंझावात में अनुपस्थित हैं और सारा खेल भावनाओं का हो रहा है जिससे राजनीतिक समीकरण जरुर साधे जा सकते हैं,सत्ता में हमेशा की तरह फेर बदल हो सकता है और होता भी है और रंगों की नई बहार खिल सकती है,लेकिन गौतम बुद्ध की तरह संपूर्ण क्रांति के रास्ते खुल नहीं सकते।उसके लिए धम्म और पंचशील दोनों जरुरी हैं।


जैसे सवर्णों में कुछेक जातियों के नेतृत्व ने देश ही नहीं,पूरे महादेश को युद्ध और गृहयुद्ध,विभाजन की निरंतरता में फंसा दिया है,अब कहना ही होगा कि बाबासाहेब के मिशन का उनपर बपौती हक जताने वाले उनकी ही जाति के लोगों ने सबसे ज्यादा नुकसान किया है क्योंकि भारतीय सत्ता और तंत्र मंत्र व्यवस्था में जैसे एक ही जाति का वर्चस्व है,उसी तरह अंबेडकरी आंदोलन पर एक ही जाति का वर्चस्व अभिशाप है।दलितों और बहुजलों की एकता और संगठन के लिए वही सबसे बड़ी बाधा है।


अंबेडकरी आंदोलन से जुड़े महाराष्ट्र से बाहर के तमाम अंबेडकर अनुयायी यह बात बेहद अच्छी तरह महसूस करते हैं और इसी शिकायत की तहत ही बार बार अंबेडकरी संगठनों,पार्टियों और आंदोलन का विघटन होता रहा है।हो रहा है।संगठन के बिना विखंडन और विघटन का सिलसिला अनंत है और मुक्ति की कोई राह नहीं है।


मुझे माफ करें कि अब यह कटु सत्य इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए मुझे ही लिखना पड़ रहा है।हम न बाबासाहेब के खिलाफ हैं और न बाबासाहेब की जाति या किसी दूसरी जाति के खिलाफ हैं।हम जाति वर्चस्व की शिकायत को दलितआंदोलन का आधार बनाये हुए हैं तो आंदोलन पर वर्चस्व के सच का सामना तो करना ही चाहिए।


सच यही है कि आज महाराष्ट्र में अंबेडकरी टुकड़ों में इसी ब्राह्मणवादी  जाति वर्चस्व की वजह से हजार टुकड़ों में बंटा है और अंबेडकर के नाम चल रही दुकानों के सबसे ज्यादा मालिकान भी बाबासाहेब की जाति के लोग हैं,जिनके यहां संवाद और लोकतंत्र निषिद्ध है और ब्राह्मण भले जाति उन्मूलन को वैचारिक स्तर पर अपना एजंडा मान लें,वे जाति वर्चस्व को तोड़ नहीं सकते।इसीलिए अंबेडकर भवन जैसे ध्वस्त हुआ,बाबासाहेब का मिशन भी बेपता लापता है।इसीलिए दलितों की ताकत समझकर गोरक्षकों का हमला तेज से तेज है।अब तो बंगाल जैसे राज्य में भी गोरक्षक खुलेआम गायों की गिनती कर रहे हैं और पूरा बंगाल केसरिया होने लगा है।


दलितों की इसी जात पांत की वजह से ही महाराष्ट्र में लाखों अंबेडकरी संगठन होने के बावजूद अंबेडकरी आंदोलन सबसे कमजोर है और अंबेडकर भवन टूटने के बाद यह साबित हो गया।अंबेडकरी आंदोलन में बिखराव और गद्दारी का यह नतीजा है।


जिस राजनीति की वजह से ऐसा हुआ,उसके खिलाफ खड़े होने के बजाय उसी सत्ता से सबसे ज्यादा नत्थी हैं महाराष्ट्र के जातिवादी अंबेडकर वंशज और अनुयायी।बाबासाहेब के कृतित्व व्यक्तित्व और आंदोलन का कबाडा़ वे ही कर रहे हैं।


समाज और देश को ब्राह्मणवाद से मुक्त कराने का आंदोलन शुरु हुआ भी नहीं है लेकिन अंबेडकरी नवब्राह्मणवाद की वजह से बाकी दलित, पिछड़े, बहुजन, आदिवासी और गैरहिंदू और सभी वर्गों की महिलाएं अभूतपूर्व संकट में हैं।


अंबेडकरी चलवल का सत्यानाश महाराष्ट्र में हुआ और इसी वजह से बाकी देश में बाबासाहेब के संविधान को लागू कराने की ताकत दलितों और बहुजनों में नहीं है और जाति उन्मूलन का बाबासाहेब का मिशन भी इसी वजह से हाशिये पर है।इस सच का सामना किये बिना भविष्य में गौतम बुद्ध की राह पर चलकर भी कोई क्रांति भारत में होगी,ऐसे किसी ख्वाब की कोई जमीन नहीं है।


सत्ता को दलितों बहुजनों की कुल औकात मालूम है और इसीलिए गोरक्षक बेलगाम हैं।


बाबासाहेब ने शिक्षित बनने का नारा दिया जो देशभर में बहुजन आंदोलन के तमाम पुरोधाओं का नारा रहा है और जिस वजह से दलितों और बहुजनों में शिक्षा का इतना व्यापक प्रचार प्रसार हुआ।


फिर बाबा साहेब ने कहा कि संगठित हो जाओ।यहीं से गड़बड़ी की शुरुआत हुई क्योंकि न दलित संगठित हुए और न बहुजन संगठन या समाज बना,न पिछड़े संगठित हुए और न आदिवासी और धर्मांतरित बाबासाहेब के तमाम अनुयायी।


वे जाति और धर्म के नाम पर भावुक आंदोलन करते रहे हैं जो इस वक्त सुनामी की शक्ल में हैं,लेकिन बाबासाहेब के कहे मुताबिक संगठित बहुजन समाज का ख्वाब अभी ख्वाब भी नहीं है।समाज नहीं बना,पार्टियां बनती रहीं।


आंदोलन हुआ और हो रहा है।सत्ता में साझेदारी भी बड़े पैमाने पर हो रही है लेकिन दलितों या बहुजनों का साझा संगटन बना ही नहीं।जो भी संगठन बने वे जातियों के,जाति वर्चस्व के संगठन है और कुल मिलाकर अंबेडकरी आंदोलन जाति युद्ध में तब्दील है और मिशन गायब है।दलितों पर हो रहे हमलों के जिम्मेदार दलित ही हैं।


राष्ट्र के चरित्र में आमूल चूल परिवर्तन और न्याय और समता पर आधारित सामाजिक ढांचे के निर्माण के लिए एक कदम बढ़ाये बिना हम अचानक सबकुछ बदल जाने की उम्मीद कर रहे हैं जबकि विश्वव्यवस्था की पैठ अब हमारी जड़ों तक में हैं और उनपर किसी सुनामी का असर होना बेहद मुश्किल है।


दुनिया में कहीं भी इस तरह बिना राष्ट्र का चरित्र बदले,बिना सामाजिक क्रांति के बदलाव हुआ नहीं है।दुनिया के किसी भी देश का,चाहे अमेरिकी, फ्रांसीसी, ब्रिटिश, रूसी, चीनी कहीं का कोई इतिहास पढ़ लें।


पड़ोस में बांग्लादेश है,जहां जाति धर्म के बदले मातृभाषा के तहत एकीकरण हुआ तो फिर उसी धर्मोन्मादी तूफां की वजह से बांग्लादेश में गृहयुद्ध है।


गुलाम भारत में जाति धर्म नस्ल क्षेत्रीय अस्मिता की दीवारे तोड़कर आम जनता का जो मानवबंधन तैयार हुआ,उसी से हमें आजादी जैसी भी हो मिली,अब हम भी उसी बिखराव में फिर गुलामी में वापसी की तैयारी में लग गये हैं ।


सत्तावर्ग के हर जुल्मोसितम की प्रतिक्रिया बेहद गुस्से के साथ अभिव्यक्त हो रही है लेकिन प्रतिरोध की जमीन तैयार नहीं हो पा रही है।


जाहिर है कि जल जंगल जमीन नागरिकता और हक हकूक की लड़ाई लड़े बिना हम सबकुछ बदल देंगे या अंबेडकर युग शुरु हो गया है, दिवास्वप्न के अलावा कुछ नहीं है।


बात थोड़ा खुलकर कहने की शायद अब अनिवार्यता बन गयी है।भारतीय समाज में जात पांत हजारों साल से हैं।अलग अलग धर्म है तो एक ही धर्म के अनुयायियों की आस्था के रंग अलग अलग हैं।इसके बावजूद भारतीय संस्कृति में अंध आस्था और रंगभेदी भेदभाव के बावजूद साझे चूल्हे की विरासत खत्म हुई नहीं है।अब तमा सुनामियां उन्हीं बच खुचे साझा चूल्हों की आग बुझाने में सक्रिय है और हम बेहद तेजी से इतिहास,लोक और विरासत की जड़ों से कट रहे हैं।हमारी जमीन गायब है।


दलितों पर हमले अंबेडकर भवन के बिना विरोध ध्वस्त कर देने के बाद और खासतौर पर महाराष्ट्र में अंबेडकरी आंदोलन के हजार टुकड़ों में बिखर जाने के बाद इतने दलितों पर हमले व्यापक और इतने तेज हो गये हैं क्योंकि हमलावर जानते हैं कि उन्हें सत्ता का संरक्षण मिला हुआ है और चूंकि उस सत्ता के साझेदार दलित,पिछड़े और अल्पसंक्य़क सभी समुदायों के लोग हैं तो गोरक्षकों का बाल कोई बांका कर ही नहीं सकता।बवाल जितना भी हो,रैली, धरना,प्रदर्सन,हड़ताल कुछ भी हो,दो चार चेहरे परिदृश्य से बाहर कर देने के बाद भावनाओं का तूपां यूं ही थम जायेगा।रौहित वेमुला के मामले में यही हुआ और गुजरात मामले में यही हो रहा है।


कोई आंदोलन लगातार चल नहीं सकता और सत्तावर्ग आंदोलन को तोड़ने का हर हथकंडा अपनाता है और हर बार हम संपूर्ण क्रांति की उम्मीद बांध लेते हैं और फिर खाली हाथ ठगे से बाजार में नंगे खड़े हो जाते हैं।


दलितों पर ही हमले नहीं हो रहे हैं।सबसे ज्यादा हमले तो स्त्री के खिलाफ हो रहे हैं।जाति धर्म निर्विशेष पितृसत्ता का चरित्र और चेहरा सार्वभौमिक है।वैश्विक है।


इसी तरह आदिवासियों के खिलाफ बाकायदा युद्ध जारी है और वे अकले इसका मुकाबला कर रहे हैं।मारे जा रहे हैं।


तो बाहुबलि दो चार जातियों को छोड़ दें तो बहुसंख्य पिछड़ों पर भी हमालों का सिलसिला जारी है और ऐसे तमाम मामलात में पिछड़े एक दूसरे को लहूलुहान कर रहे हैं।वे मार रहे हैं तो मारे जा रहे हैं उन्ही के लोग जो किसी और जाति के हैं।


क्या इस सैन्यराष्ट्र में वे तमाम लोग सुरक्षित हैं जिन्हें अंबेडकर के नाम से घृणा है,जो आरक्षण के खिलाफ हैं और हिंदू राष्ट्र के पैरोकार हैं,यह भी समझने की बात है।


सवर्ण जातियां भी क्या सब बराबर हैं,इस पहेली को भी सुलझाने की बात है।

रोटी बेटी का खुला संबंध दलितों और पिछड़ों में जाति बंधन के बिना असंभव है तो सवर्णों में जाति और गोत्र की असंख्य दीवारे हैं।


जो लोग इन बंधनों को तोड़कर धर्म जाति नस्ल की दीवारें तोड़कर विवाह कर रहे हैं,उनकी साझी जाति फिर सत्तावर्ग से नत्थी हो जाती है और पारिवारिक सामाजिक विरोध से निपटने का तौर तरीका यही है।ऊंची जाति में विवाह करने के बाद कोई दलित आदिवासी या पिछड़ा परिचय ढोता नहीं है।


क्योंकि जाति की छाप निर्णायक होती है।फिर यह भी परख लें कि  सवर्णों में कितनी जातियां हैं जिन्हें सभी क्षेत्रों में दूसरी जातियों के बराबर प्रतिनिधित्व मिल रहा है।


इस पर तनिक सोचें और गहराई से विचार करें तो जाति ही सबसे बड़ी बाधा है।फिर समझ में आना चाहिए कि समता और सामाजिक न्याय मुसलमानों और दूसरे गैरहिंदुओं के लिए दलितों,पिछड़ों और आदिवासियों की तरह जितना अनिवार्य है,उतना ही समता और सामाजिक न्याय की लड़ाई वंचित सवर्णों के लिए भी जरुरी है।


आदिवासियों,पिछड़ों और दलितों की बात रहने दें।मुसलमानों और दूसरे गैरहिंदुओं को भी छोड़ दें।दिगर नस्लों को भी बाहर कर दें।अब देखें कि इनके बिना हिंदू समाज में कितनी समानता है और समानता नहीं है तो इसकी वजह भी समझने की कोशिश करें।


वैसे भी बाबासाहेब अंबेडकर से पहले इस देश में स्त्रियों को कोई अधिकार कानूनी नहीं थे।नवजागरण में सिर्फ हिंदू समाज की कुप्रथाओं पर अंकुश लगा है तो नहीं भी लगा है।सती प्रथा आज भी जारी है और विधवा विवाह अब भी हिंदू समाज में इस्लाम या दूसरे धर्म के मुकाबले अंसभव है।


हिंदू समाज में तलाक का कानूनी अधिकार है लेकिन तलाकशुदा स्त्री को  अगर मजबूत पारिवारिक सामाजिक समर्थन नहीं है तो उसकी स्थिति का अंदाजा आप लगा सकते हैं। स्त्री विरोधी इसी परिवेश से निबटने के लिए कन्याभ्रूण की हत्या अब भी महामारी है तो जाति गोत्र के मुताबिक अरेंज मैरेज के लिए सुयोग्य पात्रों का बाजार भाव आसमान पर हैं तो इसके शिकार सबसे ज्यादा सवर्ण परिवार ही होते हैं।आनर किलिंग तो महामारी जैसे सभी धर्मों और जातियों का फैशन है तकनीकी विकास के बाजार में।


जाति जितनी बड़ी,नाक और मूछों की ऐंठन भी उतनी ही ताकतवर होती है,जिसके आगे मन मस्तिष्क,ज्ञान विज्ञान,तकनीक,विचारधारा,वैज्ञानिक दृष्टि सबकुछ अनुपस्थित हैं।जाहिर है कि देश मुक्तबाजार है और कानूनी कभी लागू न होने वाले हकहकूक के बावजूद इस अमेरिकी उपनिवेश में मध्यकाल का अब भी घना है और हिंदुत्व के नाम उसी अंधियारे का शेटर बाजार उछाले पर है।


बाकी अंग्रेजों के आने से पहले हम जिस हाल में थे,उसमें गुणात्मक परिवर्तन कुछ नहीं हआ है।हम हजारों सा का अभिशाप जाति को न सिर्फ ढो रहे है,जाति जी रहे हैं और हर स्तर पर जाति को ही मजबूत करने में तन मन धन न्यौच्छावर कर रहे हैं।विकास का मतलब कुल यही है।


भारतीय संविधान के प्रावधानों के मुताबिक स्त्रियों, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों,गैर हिंदुओं को जो हकहकूक मिलने चाहिए,वे मिल नहीं रहे हैं,अलग बात है।लेकिन कानून तो बने हुए हैं।सिर्फ संविधान का भूगोल बेहद छोटा पड़ गया है देश के नक्शे के मुकाबले।जहां कानून का राज कहीं नजर नहीं आता।


कभी इस पर गंभीर चर्चा हुई है क्या कि आखिरकार विश्वनाथ प्रताप सिंह और अर्जुन सिंह जैसे राजवंश से जुड़े कद्दावर राजपूत नेता मंडल कमीशन और पिछड़ों का इतना खुलकर समर्थन क्यों करते थे?


आजादी से पहले जितनी जमीन जायदाद रियासतें, जमींदारियां,हवेलियां राजपूतों के पास थीं,वे अब कहां है।भारत की राजनीति में उनकी हैसियत क्या रह गयी है और वीपी और कुँअर अर्जुन सिंह के बाद उनके उत्तराधिकारी भारतीय राजनीति में कौन हैं।क्या सभी क्षेत्रों में राजपूतों को समान प्रतिनिधित्व मिलता है और क्या किसी भी समीकरण में उनकी भूमिका निर्णायक हैं।मूंछों के अलावा अब उनके पास बचा क्या है।बहुतों ने हालांकि मूंछे भी कटा ली हैं और जहा तहां एडजस्ट होने की जद्दोजहद में लगे हैं।


इसीतरह कायस्थों को ले लीजिये।मुगलिये जमाने से पढ़े लिखे नौकरीपेशा लोग वे हैं।जहां वर्णव्यवस्था लागू नहीं हो सकी,जैसे बंगाल में वे सदियों से जमींदारी हैसियत और रुआब में हैं।बाकी देश में उनकी हालत आप खुद देख लीजिये।उत्तर प्रदेश,असम,मध्यप्रदेश या बिहार जैसे राज्यों में उनकी हालत पर नजर डालें।


फिर जिन ब्राह्मणों के खिलाफ सवर्णों को भी शिकायतें आम हैं,उनमें भी वंश गोत्र वर्चस्व का खेल अलग है।उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में ब्राह्मणों की आबादी शायद बाकी देश के मुकाबले सबसे ज्यादा है।इन प्रदेशों में भी ब्राह्मणों में कितनी फीसद लोग जाति के मुताबिक फायदे में हैं।


जाति समीकरण के मुताबिक राजनीति फायदा सबसे ज्यादा पिछड़ों को हुआ है जो मंडल लागू होने से पहले तक खुद को सवर्ण कहते रहे हैं तो आज भी उनके तेवर सवर्ण हैं और सत्ता से नत्थी हो जाने के बाद बाहुबलि पिछड़ों का नजारा तो सारा देश देख रहा है।दलित अत्यचार का मामला तुल पकड़ जाने पर जो मुख्यमंत्री पदमुक्त हो रही हैं,वे पाटीदार हैं और बेहद संपन्न होने के बावजूद वे सबसे आक्रामक आरक्षण आंदोलन चला रहे हैं।केसरिया राजकाज में प्रयोगशाला राजस्थान की वसुंधरा भी ओबीसी हैं तो तमाम राज्यों में ओबीसी मुख्यमंत्री हैं।प्रधानमंत्री भी ओबीसी हैं।बदला क्या कुछ भी?


ऐसी कितनी पिछड़ी जातियां हैं जो सत्ता से नत्थी बाहुबलि हैं,यह देख लीजिये।दलितों और आदिवासियों में सत्ता और आरक्षण का फायदा कितनी जातियों को मिला है,इसका भी हिसाब लगा लीजिये।फिर बताइये कि समरसता,न्याय और समता का भगोल क्या है और इतिहास क्या है।


वहीं,बंगाल के दलितों और बंगल से बाहर बसे विभाजन पीड़ितों की मानसिकता में,तेवर में जमीन आसमान का फर्क है।बंगाल में दलित जाति व्यवस्था के शिकंजे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं आरक्षण के बावजूद।वही,बिना आरक्षण बंगाल से बाहर,बंगाली इतिहास और भूगोल से बाहर भारत के विभिन्न राज्यों में बसे दलित शरणार्थी सवर्णों से किसी मायने में कम नहीं हैं।


हम जब उत्तर भारत में थे तो हमारी हैसियत कुछ और थी।अब पिछले पच्चीस साल से नौकरी की वजह से बंगाल में रिहाइस की वजह से जो हैसियत बंगाल से बाहर मेरी रही है,वह नहीं है।क्योंकि वहां हम जन्मजात जाति मुक्त थे और जातिव्यवस्था का कोई दंश हमने झेला नहीं है और न जाति का लाभ हमें कोई मिला है।बंगाल में लैंड करते ही हमारी कुल औकात हमारी वह जाति है,जिसके बारे में हमें कुछ भी मालूम न था।


फिरभी गायपट्टी में जाति की वजह से मुझे कोई नुकसान हुआ नहीं है जो बंगाल में साढ़े सत्यानाश जाति पहचान से नत्थी हो जाने की वजह से हुआ।बंगाल से बाहर भी जब तक आरक्षण की मांग नहीं की बंगाली शरणार्थियों ने जाति पहचान से उनको कोई नुकसान सत्तर के दशक तक नहीं हुआ।


जब जाति में दलित शरणार्थी फिर आरक्षण के लोभ में लौटने लगे तो उनकी जिंदगी कयामत में तब्दील हो गयीं।नौकरी तो मिल ही नहीं रही है,जो मौके सत्तर तक मिल रहे थे,वे भी मिल नहीं रहे हैं,जमीन से लेकर नागरिकता से भी वे बेदखल हैं।



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