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Thursday, May 17, 2018

रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं? पलाश विश्वास

रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं?
पलाश विश्वास

I was with religious fanatics for many years. In fact, I was one of them. They don't understand Tagore, and his message of universal humanity and emancipation. Their hate and bigotry is dark, divisive, and past. Rabindranath Tagore is love, light and future.


बंगाल में आज रवींद्र जयंती की रस्म अदायगी हो रही है।जो मूलतः रवींद्र संगीत पर केंद्रित है।नजरुल जयंती पर भी यही माहौल होता है।वैदिकी मंत्रोच्चार की तरह।रवींद्र विमर्श पर कोई जनसंवाद नहीं होता और न नजरुल साहित्य पर।ज्ञान पर एकाधिकार वर्चस्व की वजह से बहुसंख्य जनता के साथ ज्ञान के मठाधीश का बर्ताव जजमानों को प्रसाद बांटने जैसा होता है।साहित्य में भी यही उपक्रम जारी है ।इसे यूं समझें कि जैसे मीडिया में सूचनाओं की पल दर प्रतिपल आंधियां चलती रहती हैं और ये सारी सूचनाएं सत्ता वर्ग के हित में होती हैं जिनसे आम जनता के हितों का कोई संबंध नहीं होता।एक उदाहरण पेश करुं तो शायद बहुतों को बेहद बुरा लग सकता है।बाकी दुनिया के मुकाबले में हमारे यहां दलित साहित्य के नाम पर आत्मकथाओं को जोर शोर से महिमामंडन किया जाता है।यह दलित आत्मकथा और स्त्री आत्मक्थ्य के बारे में समान रुप से सच है।नतीजतन भारतीय भाषाओं में  समूचा दलित साहित्य आत्मक्थ्य के विविध रुप हैं,जहां व्यक्ति के संघर्ष और व्यक्ति के उत्थान का ही घनघोर महिमामंडन किया जाता है।असके विपरीत दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों और स्त्रियों के भी जबर्दस्त सामूहिक सामुदायिक जीवन की,समाज को बदल डालने के प्रयासों,आंदोलननो,सामूहिक विद्रोहों के आख्यान या तो बहुत कम लिखे जाते हैं या जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाता है।
रवींद्र साहित्य और नजरुल साहित्य का भी सच यही है।खासकर रवींद्र ने अस्पृश्यता के खिलाफ,अंध राष्ट्रवाद के खिलाफ,सामाजिक विषमता के विरुद्ध,वर्चस्ववाद के खिलाफ,दलितों,स्त्रियों और किसानों के हक में जो लिखा है,वर्चस्ववाद के खिलाफ जो विद्रोह किया है,उस पर कोई चर्चा बंगाल या बंगाल से बाहर होती नहीं है।गीतांजलि भी उनका आत्मकथ्य है और यह दैवी सत्ता के खिलाफ विद्रोह है जिसे आध्यात्म कहा जाता है।उनकी प्रमुख रचनाओं  का स्रोत बौद्ध साहित्य है लेकिन उन्हे वेद उपनिषद से प्रभावित कहकर प्रचारित किया जाता है।
बंगाली स्त्रियों के कंठ और ह्रदय में रवींद्र और नजरुल संगीत जिंदा है क्यों रवींद्र और नजरुल के गीतों में ही स्त्री को पितृसत्ता की दीवारों से मुक्ति मिलती है।इसके विपरीत रवींद्र को हिंदू कुलीन  राष्ट्रवाद के महानायक बतौर पेश किया जाता है और यही सलूक डा.भीमराव अंबेडकर के साथ भी हो रहा है।
इस पर मैंने बहुत लिखा है।आगे जीते रहें तो फिर लिखते रहेंगे।
सविता इस वक्त सोदपुर की स्त्रियों के साथ रवींद्र जयंती पर हर साल की तरह कार्यक्रम में गयी हैं और जाने से पहले पूछकर गयी है कि उत्तराखंड में क्या स्त्री को इतनी आजादी है और वहां क्या स्त्रियों के लिए सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों के अवसर हैं,मैं जवाब में कुछ कह नहीं सका।
अमेरिका में तीन दशक से ज्यादा समय से रह रहे डा.पार्थ बनर्जी ने अमेरिका और यूरोप में फ्रीसेक्स के मिथ को तोड़ते हुए फेसबुक पर भारत के पुरुष वर्चस्व और अज्ञानता के अंधकार पर प्रहार किया है और बांग्ला में लिखा यह पोस्ट मैंने शेयर भी किया है।पार्थबाबू से बात हुई है कि इस टिप्पणी का अनुवाद करके प्रकाशित किया जाना है।
आज उऩ्होंने रवींद्र जयंती पर बंगालियों के रवींद्र प्रेम के पाखंड की धज्जियां उधेड़ते हुए दावा किया है  कि वे रवींद्र को समझते ही नहीं है।
पार्थ बाबू विद्वान हैं और वे ऐसा दावा करने की हैसियत भी रखते हैंषहम ऐसा कह लिख नहीं सकते हैं।लेकिन उन्होंने रवींद्र विमर्श पर मेरे लिखे को अपनी इन टिप्पणियों से सही साबित कर दिया है।

On the birthday of poet-philosopher-educator Rabindranath Tagore, I created an English-language audio program -- especially for my American friends, Indian and Pakistani friends, and Bengali-origin young people who would prefer English over Bengali. The program is open and free. I hope you listen, comment, and share. Tagore finds me my identity, my consciousness, my progressive mission, and truly, my reason to live. No, he is not God. He is a man, who symbolized modernity and enlightenment.

বাঙালিদের একটা স্বভাব আছে, খুব কম জেনেও অনেক কথা বলা। তাও আবার ভুল বানানে। যাই হোক, আমি তো আর ব্যাকরণচঞ্চু নই। তাও, রবীন্দ্রনাথের উক্তি বলে যাহোক তাহোক কারুর একটা ভুলভাল উক্তি ভুল-বানানে কোট করে দিচ্ছে দেখলে মনে একটা রক্তলোলুপ প্রতিহিংসার মনোভাব জাগে। ভীষণরকম নন-ভায়োলেন্ট বলে কিছু করতে পারিনা। এই করে করে আঙুলের নখগুলো চিবিয়ে আখের ছিবড়ে করে ফেলেছি।

বাঙালি কত জানে! শ্লীলতা অশ্লীলতার ব্যাপারটা তো আছেই। আমেরিকা ঘোর অশ্লীল। বীভৎস। "ওখানে যা সব ব্যাপার হয়, সে আর কী বলবো মশাই। ট্রেন বাস রাস্তাঘাট পার্কে পশ্চিমে সর্বত্র চূড়ান্ত বেলেল্লাপনা চলে। মানুষ, না কুকুর?" "কোথায় দেখলেন, দাদা, দিদি?" "দেখার কোনো দরকার নেই। খবর পাই।" "আহা, কোথায় খবরটা পেলেন, সেটা বলুন?" "ওই তো, আমাদের এক ভাগ্নের বাড়িওলার ছোট ছেলের মেজো শালা গিয়েছিলো।" "ও আচ্ছা, তাই বলুন। আপনি অন্যের মুখের ঝোল ঝাল অম্বল খাচ্ছেন।"

এই পর্যন্ত বলার পরে কথার মোড় অন্যদিকে ঘুরেই যাবে। কারণ বক্তা এখন রেগে আগুন, এবং বিলো-বেল্ট একখানা ঝাড়ার জন্যে তৈরী হচ্ছেন। "আরে যান যান মশাই। আপনাদের আমেরিকার কথা আর বলবেন না।" "কেন, আবার কী হলো?" "কী আপনি আমেরিকায় স্কুলে ছেলেমেয়েদের ওপর মারধোর করা হয়না বলছেন? ছাত্রদের প্রতি হিংসা হচ্ছে না কিন্তু তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে। আমেরিকার কাণ্ড কারখানা দেখে হাঁসাও যায় না কাঁদাও যায় না।" (অ্যাকচুয়াল কমেন্ট আজকেই -- বানান বিভীষিকার "হাঁসি"।)। আমার উত্তর, " "তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে ।" -- কোথায় হলো? আপনারা কত জানেন! আমেরিকা সম্পর্কে কিছু না জেনেই সেখানকার ছাত্রদের সম্পর্কে আপনাদের কী মূল্যবান ধারণা! বরং, ফ্লোরিডার বন্দুকবাজির পরে সারা আমেরিকায় ছাত্রছাত্রীরা প্রতিবাদ করে রাস্তায় নেমেছে এই ভায়োলেন্স বন্ধ করার জন্যে। এসব খবর কি আপনাদের কানে পৌঁছয় না?"

এইরকম আরো আছে। অনেক। যদি বলি, এর পরেও কি আপনি আপনার ছেলেকে বা মেয়েকে আমেরিকায় আসার চান্স পেলে বন্ধ করবেন তার আসা?" তখন দেখবেন, সবাই অদৃশ্য। কিন্তু, ঝাল ঝাড়া থেকেই যাবে। যদি বলেন, "আচ্ছা, আমেরিকার ম্যাকডোনাল্ড, কোক, পিজ্জা হাট, কে এফ সি'তে যান না কখনো?" নিঃশব্দ। "আমেরিকান সিনেমা দেখেন না?" কেউ নেই তখন স্টেজে।

আর যা যা দেখেন আমেরিকার জিনিস (ইচ্ছে করেই "জিনিস" লিখলাম ভুল বানানে) -- শ্লীলতার খাতিরে সেসব আর লিখলাম না। আফটার অল, এই ফেসবুকে আমার বৌ, বোন, বন্ধু আর হাজার ছাত্রছাত্রী আছে। কিছুটা শুনুন, আর অন্যটা ইম্যাজিন করে নিন। সত্যজিৎ রায়ের "নীল আতঙ্ক" এর কাছে শিশু!

আমেরিকার শাসকদের বিরুদ্ধে, যুদ্ধ, সি আই এ, বন্দুকবাজি, পুলিশি অত্যাচার, মিডিয়া ও মানবাধিকার লঙ্ঘনের বিষয়ে আমি এতো লিখেছি যে লোকে ভাবে আমি পাগল। এতোই মূর্খ যে নিজের ভালোমন্দ, নিরাপত্তাও বুঝিনা। যা খুশি লিখি। একদিকে এইসব লিখি, আবার অন্যদিকে আমেরিকার বা অন্য কিছুটা উন্নত দেশের শিক্ষাব্যবস্থার আধুনিকতা, নারীর স্বাধীনতা সমানাধিকার, শিশুদের জন্যে হাজার আনন্দ পার্ক খেলার ব্যবস্থা সিনেমা, তারা যাতে ভয়হীন ভাবে বড় হতে পারে, তার জন্যে স্কুলে একেবারে প্রথম থেকেই নিবেদিতপ্রাণ শিক্ষক শিক্ষিকাদের দেওয়া ভালোবাসা -- তা নিয়ে লিখেছি বহু বছর ধরে। আবার এই মার্কিন বন্ধু ও বান্ধবীদের, গুরুস্থানীয় মানুষদের খুব কাছ থেকে দেখেছি হিউম্যান রাইটস'এর কাজ করতে, পরিবেশ নিয়ে আন্দোলন করতে, যুদ্ধের বিরুদ্ধে রাস্তায় নামতে। তাদের কাছে অনেক শিখেছি।

এইসব কথা বাঙালিরা তেমন কেউ জানতেও চায়না। শিখতেও চায়না। কিন্তু বাজে বকতে তো আর পয়সা লাগেনা। আর সেন্টিমেন্টাল বাঙালি বাজে বকতে পেলে আর কিছু চায়না। কাজেই ....

ফেসবুকে এসব কথা বলে কোনো লাভ আছে কি? যেখানে একটা তিনশো বছরের পুরোনো ঠাকুর, অথবা তিন বছরের পুরোনো কুকুরের ছবি পোস্ট করলে তিন হাজার নতুন লাইক পাওয়া যায়?

শ্লীলতা অশ্লীলতা আলোচনায় অনেক বাঙালি কুকুর প্রসঙ্গ এনেছেন। আমার মনে হয়, এঁরা মানুষ যত না চেনেন, কুকুর চেনেন তার চেয়ে বেশি। আমার মনে হয়, এঁরা আসলে সবাই সেই ধর্মরাজরূপী সারমেয়নন্দন। নইলে, এতো ধার্মিক আবার কুকুর-বিশেষজ্ঞ -- একসাথে এমন আশ্চর্য সঙ্গম তাঁদের মধ্যে ঘটলো কী করে?

এ যে অদ্ভুত মিরাক্কেল!
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রবীন্দ্র জয়ন্তীতে আমার কবি প্রণাম।

নিউ ইয়র্ক, ইউ এস এ।

Partha Banerjee ও হ্যাঁ, রবীন্দ্রভক্ত বাঙালিদের বলতে ভুলে গেছি এই পঁচিশে বৈশাখে -- ইস্কুলে এই প্রাচীনপন্থী শিক্ষাব্যবস্থা সহ্য করতে না পেরে রবীন্দ্রনাথ ওই স্কুলগুলো বর্জন করেছিলেন, এবং পরে মুক্তচিন্তার বিশ্বভারতী প্রতিষ্ঠা করেছিলেন। অবশ্য ইতিহাস কেউ পড়েনা, আর অনেকে আজকাল ভুলিয়ে দেওয়ার চেষ্টাও করে যাচ্ছে খুব বেশি।

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